हमारे आँगन में दरवाज़े के पास
निश्छल खड़े तुम सबको तकते हो
अपना साम्राज्य स्थापित किये हो सालों से
तुम ही हर आगंतुक का स्वागत करते हो .....
भोर होते ही झूमती हैं
नन्ही रचनाएं
जो तुम्हारी शाखा से
विमुख हो धरा को चूमती हैं .....
अभिमान से धरा को ढक
सबके कदम चूमती हैं
अरे हाँ तुम ही हो ना मेरे आँगन के हर सिंगार ....
बहुत सुन्दर कविता .....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteआभार सखी उपासना
Deleteबहुत सुंदर ...
ReplyDeleteसंगीता जी आपका आभार
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना...आभार.
ReplyDeleteआभार राजेंद्र जी
Deleteबहुत सुन्दर रचना ....
ReplyDeleteडैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
latest post'वनफूल'
latest postअनुभूति : क्षणिकाएं
कालीपद जी आभार आपका
Deleteअच्छी रचना, बहुत सुंदर
ReplyDeleteमहेंद्र जी आभार आपका
Deleteसादर आभार शास्त्री जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteकैलाश जी हार्दिक आभार
Delete