Thursday 13 June 2013

अतृप्त धरा

तपिश झेल चुकी धरती माता ,अन्दर तक आहत है 
दरक धरा का ह्रदय गया है ,सबके लिए घातक है 
ताप जेठ का खूब सहा है , स्वेद कृषक का खूब बहा है 
जार-जार रोती रहती है , ज़ख़्म ढके अपने  रहती है 
रोज़ -रोज़ विनती करते हैं ,इंद्र देव तुमको तकते हैं 
आसमान में बदली छायी , मुस्कान सभी मुख पर ले आई 
नन्ही बूंदे भी ले आओ , रिमझिम -रिमझिम गीत सुनाओ 
अतृप्त धरा का मन रीझेगा  , सराबोर अंतर भीगेगा 
आशीष हुलस -हुलस कर देगी , अन्न-धनं  से घर भर देगी 

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (14-06-2013) के "मौसम आयेंगें.... मौसम जायेंगें...." (चर्चा मंचःअंक-1275) पर भी होगी!
    सादर...!
    रविकर जी अभी व्यस्त हैं, इसलिए मंगलवार की चर्चा मैंने ही लगाई है।
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. सादर आभार मयंक जी

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  2. अतृप्त धरा तृप्त हो ....
    सुन्दर रचना
    साभार !

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  3. बहुत सुन्दर...आशा है अतृप्त धरा तृप्त होगी...

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  4. dhara atript kabhi tript hogi nahin janate lekin sundar dhang se prastut kiya hai.

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