तपिश झेल चुकी धरती माता ,अन्दर तक आहत है
दरक धरा का ह्रदय गया है ,सबके लिए घातक है
ताप जेठ का खूब सहा है , स्वेद कृषक का खूब बहा है
जार-जार रोती रहती है , ज़ख़्म ढके अपने रहती है
रोज़ -रोज़ विनती करते हैं ,इंद्र देव तुमको तकते हैं
आसमान में बदली छायी , मुस्कान सभी मुख पर ले आई
नन्ही बूंदे भी ले आओ , रिमझिम -रिमझिम गीत सुनाओ
अतृप्त धरा का मन रीझेगा , सराबोर अंतर भीगेगा
आशीष हुलस -हुलस कर देगी , अन्न-धनं से घर भर देगी
दरक धरा का ह्रदय गया है ,सबके लिए घातक है
ताप जेठ का खूब सहा है , स्वेद कृषक का खूब बहा है
जार-जार रोती रहती है , ज़ख़्म ढके अपने रहती है
रोज़ -रोज़ विनती करते हैं ,इंद्र देव तुमको तकते हैं
आसमान में बदली छायी , मुस्कान सभी मुख पर ले आई
नन्ही बूंदे भी ले आओ , रिमझिम -रिमझिम गीत सुनाओ
अतृप्त धरा का मन रीझेगा , सराबोर अंतर भीगेगा
आशीष हुलस -हुलस कर देगी , अन्न-धनं से घर भर देगी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (14-06-2013) के "मौसम आयेंगें.... मौसम जायेंगें...." (चर्चा मंचःअंक-1275) पर भी होगी!
सादर...!
रविकर जी अभी व्यस्त हैं, इसलिए मंगलवार की चर्चा मैंने ही लगाई है।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार मयंक जी
Deleteक्या कहने
ReplyDeleteबहुत सुंदर
आभार महेंद्र जी
Deleteअतृप्त धरा तृप्त हो ....
ReplyDeleteसुन्दर रचना
साभार !
शिवनाथ जी आभार
Deleteबहुत सुन्दर...आशा है अतृप्त धरा तृप्त होगी...
ReplyDeleteआभार कैलाश जी
Deletedhara atript kabhi tript hogi nahin janate lekin sundar dhang se prastut kiya hai.
ReplyDeleteआभार रेखा जी
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