तम की चादर ओढ़ सांझ ने ,
धीरे-धीरे पाँव पसारा
आँख मिचौली खेल ज़रा सी ,,
तम उर में छिप गया उजाला
पलकों में सिमटे ख्वाबों ने ,
थोड़ी सी लेकर अंगड़ाई
थोड़ी सी लेकर अंगड़ाई
अभिनन्दन करके निद्रा का,
सीमा अपनी और बढाई
सीमा अपनी और बढाई
समां गए सपने अंखियों में,
पलक लगे ढलके-ढलके
पलक लगे ढलके-ढलके
लोरी भी गा रही ख़ामोशी,,
सहलाती हलके-हलके
सहलाती हलके-हलके
बहुत ही सुन्दर लेख ,
ReplyDeleteसादर आभार
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमवार (01-07-2013) को प्रभु सुन लो गुज़ारिश : चर्चा मंच 1293 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार मयंक जी
Deleteक्षमा कीजिएगा समयाभाव के चलते उपस्थित नहीं हो सकी
बहुत सुंदर रचना अरुणा जी
ReplyDeleteआभार महेंद्र जी
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