Saturday 25 May 2013

मेरा गाँव














.एक चौपाल ,असंख्य पेड़ों की छांव, लहलहाते खेत

यही था मेरा गाँव ..

घर -घर में मिटटी और गोबर की लिपाई-पुताई ,

वाह !! क्या साफ़- सफाई

कहीं कोई दादी ,चाची और ताई , न कोई बनावट और न झूठा आवरण

सिर्फ अपनापन और सच्चाई

औपचारिकता के दायरे से बाहर रिश्तों का आभास

गुड और साथ में मट्ठे का गिलास

प्यार के साथ-साथ ,खाने में भी सबका भाग

चूल्हे की सौंधी रोटी और प्यार के तडके का साग

आह !!! शहर की पक्की सड़क पर खो गया

वो प्यार और अपनापन ,

खाने की मिठास और मिटटी का सौंधापन

औपचरिक लिबास पहन , पकड़ ली शहर की राह

गाँव के प्यार और अपने पन की अब भी कहीं उठती है चाह ....

गाँव के प्यार और अपने पन की अब भी कहीं उठती है चाह ........

19 comments:

  1. Purani or achchi yaade taja hui aapki is rachna se.....bahut achchi rachna

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    1. शुक्रिया शांति जी

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  2. हाँ, था गाँव में अपनापन और प्रेम लेकिन यह अब पुराणी बात है नए जमाने की बाजारीकरण की हवा अब गाँव में भी पहुँच गया -आपकी कविता स्मृति को ताज़ा करती है
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest post: बादल तू जल्दी आना रे!
    latest postअनुभूति : विविधा

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    1. आपकी बात से सहमत हूँ गाँव भी अछूते नहीं शहरीकरण से

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    1. शुक्रिया महेंद्र जी

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  4. आभार अरुण जी

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  5. गाँव की अनभूतियो का सहज और सुंदर वर्णन
    सादर


    आग्रह हैं पढ़े
    ओ मेरी सुबह--
    http://jyoti-khare.blogspot.in

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  6. दिल छू गयी ये रचना. बहुत बढ़िया लिखा है. गाँव से जितना दूर हुआ, झूठा आवरण उतना ही बढ़ता गया.

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  7. बहुत ही खूब अरुणा आपने बिल्कुल बचपन याद करा दिया

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  8. मीठी यादें बस अब यादें बन के रह गई हैं ...
    शहर की पक्की सड़क ने गाँव को भी गाँव नहीं रहने दिया ... भावमय प्रस्तुति ...

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  9. बहुत सुन्दर ... काश को पुराना समय वापस आ पाता...

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    1. काश ऐसा होता धन्यवाद आपका

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  10. वाह बहुत सुन्दर रचना |
    पीछे छुट गये वो गाँव के गलियारे ,
    न जाने इंसा को शहर में ऐसा क्या भाया |

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    1. धन्यवाद मीनाक्षी जी
      हाँ कितने खूबसूरत थे वो दिन .........

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