Saturday 15 October 2011

तम की चादर,




तम की चादर ओढ़ सांझ ने ,
धीरे-धीरे पाँव पसारा

आँख  मिचौली खेल ज़रा सी ,,
तम उर में छिप गया उजाला 


पलकों में सिमटे ख्वाबों ने , 
थोड़ी सी लेकर अंगड़ाई 


अभिनन्दन करके निद्रा का, 
सीमा  अपनी और बढाई


समां गए सपने अंखियों में, 
पलक लगे ढलके-ढलके


लोरी भी गा रही ख़ामोशी,, 
सहलाती हलके-हलके

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