Saturday 15 October 2011

जो भी लिखा आपके सामने है मित्रों


भावनाओ के वेग से निकले हैं कुछ छंद 

विदित नहीं है हंसू या रोऊँ या मुस्काऊं मंद |

दिलो ,दिमाग पर 'जंग' लगा है पल -पल लड़ते 'जंग',


 महंगाई की मार पड़ी है स्वप्न हो रहे भंग |

घर में थोड़ा 'भात' पडा है पापी पेट का प्रश्न बड़ा है


 ,,कल की फिक्र से सुलगा चूल्हा 'यक्ष प्रशन' फिर भी खडा है |

चहुँ ओर काला पहरा है घोर निराशा ने घेरा है ,


आशा- निराशा की जंग में आशा का परचम फहरा है|

स्वप्नों ने लेकर अंगडाई मन में हलचल और बढाई ,

,
 रुख किया 'रण भूमि' का अब 'रण भेरी' दे रही सुनाई 

प्रतिबध्धता' है मेरी अब इन सपनो के संग

,
कोई 'उर्वशी' कितना भी चाहे करे तपस्या भंग

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