Monday 22 April 2013

आज़ादी पर्व ,

मना रहे आज़ादी पर्व ,हम करते हैं वीरों पर गर्व 
दूर भगाया था अंग्रजों को ,चूर -चूर कर उनका दर्प


खुली हवा में सांस ले रहे ,भाग गए वो रात आधी
वीर शहीदों के प्रयास से ही ,मिली हमें है आज़ादी

बलिदान ना भूल जाएँ हम उन वीर शहीदों के
नत -मस्तक हो जाएँ मिल कर सम्मान में वीरों के

थोड़ा गुलाल ,


थोड़ा गुलाल , थोड़ा विशेष प्यार ......

 आपके अपने प्रियतम कुछ यूँ सोच रहे हैं ------------

'सोच रहा हूँ इस होली पर.. दिल के रंग निकालूँगा

रंग से रंगे बिना ही प्रियतमा .. होली आज मना लूंगा ।

एक रंग होगा आलिंगन का , शर्म से तुझको लाल करे

सतरंगी इतनी बन जाओ ..मेरा हाल बेहाल करे .....।

अबीर गुलाल दूंगा अधरों से .. तेरे सुर्ख कपोलों पर 

दिल की भाषा सुने सुनाएँ..विराम रहेगा बोलों पर

अधरों से होगा अधरों पर .. वो तो रंग निराला होगा

उसकी रंगत कभी ना उतरे ..भंग निराला ऐसा होगा.

ये पंक्तियाँ समर्पित हैं ...... सभी सखियों को




सखियों नव वर्ष की खुमारी ..

मंद किया सबने, दीपक को

प्यार करे प्रीतम, जब प्रिय को


सोच लिया है मैंने साथी


कम न करूंगा, दीपक-बाती

प्यार करूंगा जब भी तुझको


बाहों में जब लूंगा तुझको 



खोल केश में तेरे लूंगा

इस साए में प्यार करूंगा

विवादों से दूर ....दो पंक्तियाँ ....


..१----
.मुमताज 'महल' में सोयी 'जहाँ' है ..........
...एक शाह का जहाँ वहां है ..................
२-
..श्वेत 'संग' की एक इमारत
..'संग' त्तराश ने लिखी इबारत ......

३-
जीवन के कुछ लम्हे उदास हैं 
रहते दिल के बहुत पास हैं

पृथ्वी की व्यथा------------पृथ्वी दिवस पर विशेष



जब स्रष्टि की रचना हुई थी तो किसी ने पृथ्वी की आज की भयंकर स्थिति के बारे में सोचा भी नहीं होगा.
ईश्वर का नियम है ...रचना और विनाश 

..........सृष्टि का विनाश भी निश्चित है | 
और शायद अंत का प्रारम्भ हो चुका है 
आज प्रथ्वी खून के आंसू रो रही है...........हर कोई निराश है ,
मानव से सब इतना निराश है कि अपनी व्यथा किस से कहे ,कैसे कहे...........?..
एक दिन प्रकृति की सभा हुई और सबने अपना-अपना दुखड़ा रोया...........

सबसे पहले आई पृथ्वी..
.......

पृथ्वी------हरी -भरी सी मैं थी धरती ,जल पवन भी थे भरपूर
लोगो में जो स्वार्थ बढा तो ,जीवन से मुझे कर दिया दूर
अब मेरा ये हाल तो देखो ,बर्बादी की चाल तो देखो.......:(-

प्रकृति -----झरने ,नदिया ,हरे पेड़ों से ,स्वछ हवा के म्रदु झोंकों से
सराबोर मै रहती थी ,खुशियाँ ही खुशियाँ जीवन में
कितने सुख में रहती थी
झरने नदियों का संगीत ,पेड़ों की वो हरियाली
स्वच्छ हवा के शीतल झोंके ,कुछ नहीं अब सब है खाली

वृक्ष -----हाल किया क्या मानव तूने , क्यों सब कुछ बिसराया
उपभोग किया भरपूर हमारा,, फिर हमको ठुकराया
मीठे फल और फूल पत्तियां ,हमसे ली सौगात
पीठ दिखाई अब तुमने और पहुंचाया आघात -

वर्षा -----ठीक कहा भैया ये तूने ,तुझ पर थी मैं निर्भर
जब से हाल हुआ ये तेरा जीना हो गया दुर्भर
अब तो भैया चहुँ भी तो कभी -कभी ही पडूँ दिखाई
रोकर अपने दिन मैं काटू, किस से अपने दुखड़ा बांटू-............

ये सभा चल ही रही थी कि , कुछ अवाछित तत्व आ धमके और वो भी अपनी गाथा गाने लगे......और मज़ाक बनाने लगे ......सबसे पहले प्रदूषण आया ........
और बोला........

प्रदूषण....हाहा ...हाहा. .....हाहा....हाहा ........मैं हूँ प्राणी कुछ नया .
मेरा डेरा नया बसा ...लेकिन मैंने इस धरती को
अपने कब्ज़े में किया.......................................................
अपना -अपना भाग्य भैया अपनी -अपनी माया ............................................
सबने अपना दुखड़ा रोया ,अपना राग यहाँ गाया ......................................
लेकिन मैं तो यहाँ बहुत खुश हूँ...........हाहा ...हाहा ....

धुँआ ------ए भाई क्यों इतना खुश होते हो ,,
मैंने हमेशा तुम्हारा हमेशा साथ निभाया है
तभी तुमने दुनिया को इतना सताया है ,
तभी तो तुमने दुनिया को इतना सताया है....

सी ऍफ़ सी (क्लोरो फ्लोरो कार्बोन )-------अरे रे .........अरे रे ...सुनो सुनो
बहुत दुष्ट हूँ मैं भी भाई ,यही बात मैं कहने आई
यही बात मैं कहने आई, और तीनो मिल कर नाचने लगते हैं

सूरज भी अपनी लाचारी व्यक्त किये बिना नहीं रह पाता.............

सूरज ----वैसे तो मैं जीवन दाता अँधेरा मुझको नहीं है भाता .....................
प्रदूषण ने मजबूर किया है कष्ट तभी मैंने दिया है .

अवांछित तत्वों के सामने सभी लाचार और मजबूर नज़र आ रहे हैं...........
और मानव को कोस रहे हैं................
काश मानव इतना लालची और स्वार्थी ना हुआ होता ..........................
तो शायद प्रथ्वी कि ये दुर्दशा ना हुई होती.............

कुछ बच्चे आते हैं और प्राण लेते हैं हम कुछ बातों का ध्यान रखेंगे .........लोगो को जागरूक बनायेंगे और अपनी पृथ्वी को बचायेंगे ............

रुनझुन -रुनझुन

बाँध पाँव में नन्ही पायल ,रुनझुन -रुनझुन करती थी 
इधर -उधर किलकारी भरती ,सबको प्यारी लगती थी 

रोज़ सुबह सुहानी होती , हर दोपहर सुनहरी  थी 
हर सांझ को संग नन्ही के ,माँ भी गुनगुन करती थी |

दो-चार समस्या से होता था  ,जीना तो कुछ था दुश्वार 
नन्ही रुनझुन में खुशिया पा  , हंसी-ख़ुशी  रहता परिवार 

रोज़ नए सपने बुनते थे ,हर तार में कई -कई रंग थे 
उस नन्हे मुख की शोभा को ,देख-देख कर वो जीते थे 

इक दिन सुबह घटा घिर आयीं ,काला अंधियारा ले आयीं 
मुरझाई फिर धूप सुनहरी ,हर मुख पर मलिनता छाई

माँ मन ही मन कुछ घबराई ,भागी -भागी बाहर आई 
आसमान में काला साया ,देख उसे बस मूर्छा आई 

रंग पानी में धुल गए थे रंगहीन धागे बिखरे थे 
नन्ही पायल टूट गयी थी 
नन्ही पायल की रुनझुन को जाने किसकी नज़र लगी थी ..........