महानगरों की बहुमंजिला इमारती संस्कृति
एक यथार्थ
फ्लेट , जिसमें जिंदगी को फुर्सत नहीं
हंसने ,रोने या खिलखिलाने की
औपचारिकता के दायरे में सब कैद है
सुख -दुःख भी समय सारणी निभाती है
वरना जिंदगी भागती नज़र आती है
चार दीवारी में लाचार दिनचर्या
ना आसमान .....ना तारे ,ना चाँद ,ना सूर्य
सब हो गए पराये ....
क्यों कि आँगन जो घर के बीच में होता था
अब तो कहीं नज़र ही ना आये
लेकिन खुश हैं उसमें रहने वाले असंख्य लोग
क्यों कि ......एक हवा में झूलता महल है उनके नाम
वो महा नगर में बन चुके हैं मालिक मकान
बे -शक उसकी कीमतें चुकाने में
उनके अमूल्य रिश्ते हो रहे कुर्बान
महानगर की भागती जिंदगी तुझे सलाम
हम तो बन चुके हैं तेरे गुलाम