
हमारे आँगन में दरवाज़े के पास
निश्छल खड़े तुम सबको तकते हो
अपना साम्राज्य स्थापित किये हो सालों से
तुम ही हर आगंतुक का स्वागत करते हो .....
भोर होते ही झूमती हैं
नन्ही रचनाएं
जो तुम्हारी शाखा से
विमुख हो धरा को चूमती हैं .....
अभिमान से धरा को ढक
सबके कदम चूमती हैं
अरे हाँ तुम ही हो ना मेरे आँगन के हर सिंगार ....