Wednesday 1 May 2013

वह तोडती पत्थर' ---हमेशा प्रासंगिक



(मजदूर दिवस पर मेरी एक पुरानी रचना ---
        

धूल भरी दोपहरी ने 'वह तोडती पत्थर' याद दिला दी
बचपन में जो सिर्फ एक रचना थी, 
उसकी परिणति हकीकत में करा दी
हाँ मैं हताश ,परेशान बस के इंतज़ार में  थी
नज़दीक एक इमारत अपने पूर्ण होने की आस में थी
कुछ कामगार , अपनी रोज़ी -रोटी की तलाश में थे
बच्चों को धूप में सुला ,उनके भविष्य को संवारने के प्रयास में थे
हाथ , हथौड़ा लिए पत्थर नज़र आते थे
आँखों में शाम के चूल्हे के, अंगार नज़र आते थे
सर पर ईंटे , एक नहीं कई थी

दूर पेड़ के नीचे उसकी भावी दुनिया सोयी थी 
फटी सी कथरी पर  ओढनी धूप की थी
झलक यहाँ जिंदगी के कई रूप की थी
पेड़ के नीचे नौनिहाल गहरी नींद में सोया था 
ख़्वाबों की मीठी दुनिया में कहीं खोया था
बच्चे ने करवट ली और पाँव पसार दिए
मेहनती माँ के अधरों पर भी स्मिता ने झंडे गाढ़ दिए
हाथ और क़दमों में तेज़ी आ गयी ...
मस्तिष्क को शायद ख्वाब की कोई झलक पा गयी
हमेशा प्रासंगिक है ये, इसका अंत नहीं होई

कभी इलाहाबाद का पथ और कभी छोटी सी गली कोई