Thursday, 23 May 2013

एक पुरानी रचना ----भावनाओं का ज्वार





१---ताला खोलते ही अन्दर कुछ चटकता है 
भावनाओं का ज्वार गले में अटकता है 
याद आ जाता है वो ----

एक मुखड़ा निश्छल हंसी , तृप्ति के साथ 
जब बढ़ आते थे स्वागत को माँ के हाथ 
गले मिल उमड़ता आँखों में सैलाब 
मन करता करूँ जोर -- जोर से प्रलाप 
गले लगा कर कन्धों को थपथपाना 
और अपने आंसुओं को आंचल में छिपाना .

मानो उनके पंख उग आते थे 
जब हम बच्चों के साथ माँ के घर जाते थे












२---उदास सुनी रसोई भी मुस्कराती ,
बर्तनों के साथ खुल कर खिलखिलाती
नल का पानी जल तरंग बजाता
तो बर्तनों का साज नयी धुन पर इतराता
कलछुल बेफिरी से छौंक लगाती
कुकर की सीटी भी अलग अंदाज़ दिखाती
दूध और दलिए के आदी ये बर्तन
उत्साह से भर जाते और
हर नए पकवान में अपना योगदान निभाते थे














३---जब तक बच्चे रहते घर का हर कौना गुलज़ार रहता .
खिलखिलाहटों और ठहाकों का दौर बरकरार रहता
आइसक्रीम , गुब्बारे वाले जोर से आवाज़ लगाते
देर तक दरवाज़े के पास ही मंडराते
बच्चों के जाने का दिन आता तो वो बेज़ार हो जातीं
उनके चेहरे की प्रफुल्लता गायब हो जाती
रसोई बे--रौनक ,कढाई बे--नूर नज़र आती
वो दिन , वो यादें दिल के बहुत पास है ...
उनके साथ बीता हर लम्हा बहुत ख़ास है ..















आज भी ताला खोला तो जालों का अम्बार है
धूल का साम्राज्य और उमस की भरमार है ..
कुछ दिन यहाँ रह कर 'मकान' को 'घर' बनायेंगे
उन मीठी 'यादों' को अपनी 'बातों' में सहलायेंगे
रसोई के उदास बर्तनों को भी थपथपा कर फुसलायेंगे
कुछ लम्हों को जी कर यहाँ कुछ छोड़ देंगे और बाकी साथ ले जायेंगे
और फिर
ताला बंद कर इस 'घर' को 'मकान' घोषित कर
अगले साल फिर आयेंगे ......
हे ईश्वर हमें साहस देना ये सिलसिला यूँही अनवरत चलता रहे
माता -पिता का ये दर ,बरस हर बरस खुलता रहे

घर की छत 

Sunday, 19 May 2013

सूरज दादा

सूरज दादा बड़ी अकड़ में रोज़ सवेरे आते हैं
मस्तक उंचा करे गर्व से अभिमानी बन जाते हैं

धूप चमकती खिली रुपहली तपती धरा खूब पथरीली
बहे पसीना बार -बार और त्वचा लग रही गीली -गीली

लू ने भी है धूम मचाई थप्पड़ मारे ले अंगडाई
इधर -उधर कीगरम हवा ने बेचैनी है और बढाई

ठंडा सतुआ मन को भाये , लस्सी ,शरबत के दिन आये
पल -पल सूख रहे हलक में शीतलता तरावट लाये

बेल का शरबत राहत देगा, अपच पेट का ठीक करेगा
लथपथ हुए पसीने से जन , विद्युत् विभाग कर रहा हरि भजन

मेहनतकश भी हुए हलकान , करते हैं महसूस थकान
सूरज दादा करो तपन कम ,हाथ जोड़ करे विनती हम

Saturday, 18 May 2013

रीत

दरवाज़ा खोल कर जैसे ही अखबार उठाना चाहा शैलजा पर नज़र पड़ी जो सीडियां उतर रही थी , मैंने नज़रंदाज़ किया लेकिन उसने एक मुस्कान उछाल दी में  अवाक थी क्या हुआ है उसे ? आज चार साल से मुह फेर कर निकल जाने वाली शैलजा उसे देख मुस्करा रही थी लेकिन मेरे  पास समय नहीं था जल्दी से अखबार उठाया और चाय गर्म करने लगी उसे देर हो रही थी सोचने के लिए बिलकुल समय नहीं था पर विचार कहाँ साथ छोड़ते हैं  !!!
तैयार हो कर बस स्टेंड पर आई तो शैलजा फिर से मिल गयी .
"दीदी आपने ज्वाइन कर लिया क्या ?"
'हाँ' 
'कहाँ '?
'वहीँ पुराने स्कूल '
अरे बड़ा अच्छा किया आपने ,समय कट जाता है अच्छा आपके यहाँ कोइ वेकेंसी हो तो बताना उसकी बस आ गयी और वो चली गयी 
अच्छा तो ये चक्कर था !!! उसे हंसी आई दुनिया कितनी मतलबी है ! अगर शिअल्जा जैसा व्यवहार में किसी के साथ करती तो  हिम्मत भी नही कर पाती बात करने की !
ओटो मिल गया तो में  भी अपनी राह चल दी रास्ते भर शैलजा की बातें  दिमाग से निकल नही सकी .
जब वो बिहार के छोटे से गाँव से ब्याह कर आई थी तो सीधी-सादी थी ग्रेजुएशन किया था उसने लेकिन आत्मविश्वास की बड़ी कमी थी |
अक्सर उसके पास आ जाती उसका पति एक होटल में जूनियर शैफ था | में जैसे ही स्कूल से आती कुछ देर बाद शैलजा आ जाती और इधर-उधर की बातों के साथ अपनी जॉब के लिए भी बात करती में उसका दिल नही तोड़ना चाहती थी पर जानती थी उसे व्यक्तिगत रूप से बहुत बदलाव की आवशयकता है|
समय बीतता रहा उसने कोइ कम्पूटर कोर्स ज्वाइन कर लिया और एनटीटी भी  कर ली अब उसका आत्मविश्वास भी बहुत बढ़ गया था फिर एक दिन मेरे पास एप्लीकेशन लिखवाने आई तो में उसमें बदलाव देख खुश हो गयी उसे कई एप्लीकेशन लिख कर दी काफी कुछ समझाया कई स्कूल के नाम बताये और कहा अपने आप जाकर बात करोगी तो तुम एक गज़ब के आत्मविश्वास से भर जाओगी| काफी दिन की मेहनत-मशक्कत के बाद उसे एक जॉब मिल गया उसने आकर मेरा शुक्रिया किया तो मैंने कहा नही ये तुम्हारी मेहनत का फल है बस अब आगे ही बढती रहना , धीरे-धीरे वो भी व्यस्त हो गयी और में भी |हमारा मिलना -जुलना कम हो गया कभी मिलते तो हाय -हेलो बस , मुझे लगा उसमें जो बदलाव आ रहा है वो कुछ ठीक नही धीरे-धीरे बड़े शहर की हवा लग रही थी उसे लेकिन मैंने ज़्यादा ध्यान नही दिया और में कर भी नही सकती थी कुछ | कभी मुझे लगता में तो उसे छोटी बहन की तरह मानती हूँ पर वो मुझमे अपना प्रतियोगी देख रही है और ये उसकी बात-बात में झलकता था पर में चुप रहती सोचती मेरा वहम है शायद | और वो जो चाहे सोचे में तो जो हूँ ,हूँ में तो उसके लिए अच्छा ही सोचती हूँ ,एक दिन मुझे सीढ़ियों पर मिली तो बराबर से ऐसे निकल गयी जैसे जानती ही नहीं ! मुझे आश्चर्य हुआ सोचा जल्दी में होगी सासू माँ से पता चला प्रमोशन हुआ है सेलरी बढ़ गयी है जो बढ़ कर भी मुझसे कहीं कम ही थी लेकिन मुझे आश्चर्य और गुस्सा दोनों थे उस पर |
इतना अभिमान !!!! अब वो अक्सर सामने से निकल जाती और देखती भी नही थी तो मुझे लगा ठीक है में ही क्यों उसकी चिंता करूँ ?
खैर मैंने भी उस से ज़्यादा मतलब रखना छोड़ दिया इसी बीच मुझे व्यक्तिगत कारणों से स्कूल छोड़ना पडा में घर पर ही रहने लगी अब तो शैलजा को लगने लगा कि में दुनिया की सबसे बेकार और वो सबसे काबिल महिला है उसने मुझसे बिलकुल बात करना बिलकुल ही छोड़ दिया हाय -हेलो भी नदारद हो गए 
.में अक्सर सोचती कैसे लोग हैं दुनिया में ?तभी शैलजा के ससुर बीमार हुए और उसे भी स्कूल छोड़ना पडा मैंने उनकी बीमारी में शैलजा के नाते नही लेकिन अपना पडोसी धर्म निभाया शैलजा को उपेक्षित कर के |उनके ठीक होने पर कुछ दिन बाद उसने ज्वाइन तो किया लेकिन ना वो पद मिला और ना ही पुराना वेतन | अब वो बहुत दुखी थी , इस बीच मैंने अपना पुराना स्कूल ज्वाइन किया कुछ दिन शायद उसे पता नही चला और जब पता चला तो आज उसने मेरी ओर अपना पहला कदम बढाया था |
मेरा स्कूल आ गया था उसके विचारों  में इस कदर खो गयी कि रास्ता कैसे कट गया पता ही नही चला बात |
अब में महसूस करने लगी थी कि शैलजा के कदम मेरी और बढ़ रहे हैं लेकिन मुझे अब वो ज़रा भी पसंद नही आती मैंने उसे उपेक्षित करना शुरू कर दिया है लेकिन उसका प्रयास जारी है  मेरी ओर बढ़ने का ,में तो बस हैरान हूँ लोग कैसे मतलबी और स्वार्थी होते हैं ??क्या उनके पास अंतर्मन नही होता जिसमें झाँक अपने कर्मों का लेखा-जोखा कर सके .?
फिर सोचा यही रीत है दुनिया की|

Tuesday, 14 May 2013

एक यथार्थ...........



















महानगरों की बहुमंजिला इमारती संस्कृति
एक यथार्थ
फ्लेट , जिसमें जिंदगी को फुर्सत नहीं
हंसने ,रोने या खिलखिलाने की
औपचारिकता के दायरे में सब कैद है
सुख -दुःख भी समय सारणी निभाती है
वरना जिंदगी भागती नज़र आती है
चार दीवारी में लाचार दिनचर्या
ना आसमान .....ना तारे ,ना चाँद ,ना सूर्य
सब हो गए पराये ....
क्यों कि आँगन जो घर के बीच में होता था
अब तो कहीं नज़र ही ना आये
लेकिन खुश हैं उसमें रहने वाले असंख्य लोग
क्यों कि ......एक हवा में झूलता महल है उनके नाम
वो महा नगर में बन चुके हैं मालिक मकान
बे -शक उसकी कीमतें चुकाने में
उनके अमूल्य रिश्ते हो रहे कुर्बान
महानगर की भागती जिंदगी तुझे सला
हम तो बन चुके हैं तेरे गुलाम

Friday, 10 May 2013

आँगन में हर सिंगार .




हमारे आँगन में दरवाज़े के पास
निश्छल खड़े तुम सबको तकते हो
अपना साम्राज्य स्थापित किये हो सालों से

तुम ही हर आगंतुक का स्वागत करते हो .....
भोर होते ही झूमती हैं
नन्ही रचनाएं
जो तुम्हारी शाखा से
विमुख हो धरा को चूमती हैं .....
अभिमान से धरा को ढक
सबके कदम चूमती हैं
अरे हाँ तुम ही हो ना मेरे आँगन के हर सिंगार ....

Sunday, 5 May 2013

संघर्ष है ...



संघर्ष है .....
अपने ही विचार से
मूर्छित होती आस से
मरू भूमि में तृषित भटकते पंथी की प्रबल प्यास से
संघर्ष है
हार से जीत की , हार से
भावनाओं के ज्वार से
मन की उच्च छलांग से
स्वप्न उड़ान पर विराम लगाते हर एक व्यवधान स
संघर्ष है
अपने काम -काज से
अपने से और आप से
पांव पसार सम्राट बना है ऐसे भौतिक वाद से
प्राथमिकता की सूची में दायित्व और अधिकार से ..

Friday, 3 May 2013

समय का चक्र-



समय का चक्र निर्विघ्न घूमता है , 
क्षण क्या युग भी उसके कदम चूमता है 
गिन नहीं सकते थे चाह थी तारे गिने 
घटते बढ़ते चाँद से कभी तो मिलें 
चाँद कहीं खोगया ना किसी को दीखता  है 
नीला तारों भरा आसमान हर कोई खोजता है 
बचपन हरे -भरे खेतों में खेला था 
हरियाली का साम्राज्य चतुर्दिक फैला था 
बेबस धरा का स्वर पल -पल भीगता है 
कृतघ्न , कृतज्ञता को पैरों तले रौंदता है 
 पथ के दोनों ओर होती थी वृक्षों की कतार
 सहमी डरी लगती थी धूप और फुहार 
कंक्रीट के जंगल में मानव लक्ष्य ढूंढता है 
जीवन यापन का प्रश्न दिलो दिमाग में घूमता है 
सावन कारे बदरा को लुभाता था 
भादों आया फिर रवि भी मुंह  चुराता था 
मोर की  पीहूं-पीहूं , मेढक का टर्राना
आज भी स्मृति में कहीं गूंजता है 

समय का चक्र निर्विघ्न घूमता है , 
क्षण क्या युग भी उसके कदम चूमता है